शरद पूर्णिमा का चाँद
शरद पूर्णिमा का चाँद
उतरी चाँदनी सागर तल में
धीरे - धीरे प्रशांत जल में
समाती शुभता का रुप कोई
श्वेत चंदन वर्ण गमक उठी
भावों की महक निज मन की फुलवारी
सघन निविड़ के अंधियारे में ओट लिए
राग यमन का गान गुँजन करता
चंचल मन के तार
देख दृश्य पार
मोती का रंग एक आकार गोल
कुंदक - सा चन्द्रमा
बनते - मिटते सजते - संवरतेकभी आँखों से भी ओझल रहते
जरुरी है क्रम परिवर्तन का सहर्ष
दीप रोज जलेंगे
वे बुझेंगे , पर फिर दीप जलेंगे अवश्य
बाती तेल करेगा चैतन्य मानस के
आले में आभा का दीप जलेगा
अंधियारे का खण्डहर महत्व ही बतलायेगा
सुख हो या दुख हो , यह समय भी बीत जायेगा
मुरली बजती नित प्यारे की
बड़े प्यार से बतलाती और कहती
सर्वानंद प्रकाश और कृष्ण रात मैंने दोनों ही रचे
किसी एक पहर पे कभी जीवनगति न रुके
गम्य साथ की यहीं परिभाषा
वर्णन में जो बंधे ना कभी
नौका विहार में पतवार भी
कुछ कहती केवट का गीत
मन को राममय कर धुन वह उसकी बनती
हे सागरिके ! शुभे अर्चिता
तुमने देखा युग - युग का विस्तृत कार्यकलाप
अक्सर क्षुब्ध , अक्सर वेगितधार
निष्पक्ष बहती प्रवाहमय
शाँत चाँदनी के आलोक
निंदिया का अवतरण
धीरे … धीरे ….!

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